10000+ शायरी | Shayari in Hindi

10000+  शायरी | Shayari in Hindi
Posted on 17-03-2022

मिर्ज़ा ग़ालिब

Mirza Ghalib

 

नक़्श फ़रियादी है, किस की शोख़ी-ए-तहरीर का,

काग़्ज़ी है पैरहन 1, हर पैकर-ए-तस्वीर का.

 

 

 

जज़्बा-ए-बेइख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए,

सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का.

 

 

 

जुज़ 2 क़ैस 3 और कोई न आया बरू-ए-कार 4,

सहरा 5, मगर 6 बतंगि-ए-चश्मे हुसूद 7 था.

 

1 लिबास. 2 सिवा. 3 मजनूं. 4 काम आना, मुकाबले में आना. 5 जंगल, वह जगह जहां मजनूं की जान गई थी. 6 शायद. 7 हसद की तंगनजरी.

 

 

आशुफ़्तगी 1 ने नक़्शे सुवैदा 2 किया दुरूस्त,

ज़ाहिर हुआ कि दाग़ का सरमाया दूद 3 था.

 

 

 

था ख़्वाब में खयाल को तुझ से मुआमला,

जब आंख खुल गई न ज़ियां 4 था न सूद 5 था.

 

 

 

ढांपा क़फ़न ने दाग़े अयूबे बहरनगी,

मैं वरना हर लिबास में नंगे वजूद था.

 

 

 

कहते हो न देंगे हम, दिल अगर पड़ा पाया,

दिल कहां कि गुम कीजे हम ने मुद्दआ पाया.

 

 

1 परेशानी. 2 काला तिल, दिल का काला दाग. 3 धुआं. 4 नुकसान. 5 फायदा.

 

इश्क़ से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया,

दर्द की दवा पाई, दर्द लादवा पाया.

 

 

 

दोस्तदार-ए-दुश्मन 1 है, एतमाद-ए-दिल मालूम,

आह बेअसर देखी, नाला नारसा पाया.

 

 

सादगी ओ पुरकारी, बेख़ुदी ओ हुशियारी,

हुस्न को जग़ाफ़ुल में, जुर्रत-अज़मा पाया.

 

 

 

ग़ुंचा फिर लगा खिलने, आज हमने अपना दिल,

खूं 2 किया हुआ देखा, गुम किया हुआ पाया.

 

 

1 महबूब. 2 खून.

 

हाले दिल नहीं मालूम, लेकिन इस क़दर यानी,

हम ने बारहा ढूंढ़ा, तुम ने बारहा पाया.

 

 

 

शोरे पंदे नासेह1 ने ज़ख्म पर नमक छिड़का,

आप से कोई पूछे, तुम ने क्या मज़ा पाया.

 

 

 

दिल में, ज़ौक़े वस्ल यादे-यार तक बाक़ी नहीं,

आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया.

 

 

 

दिल नहीं, तुझ को दिखाता वरना दाग़ों की बहार,

इस चिराग़ां 2 का करूं क्या, कारफ़रमा जल गया.

 

 

 

बू-ए-गुल नाला-ए-दिल, दूदे चराग़े महफिल,

जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशां निकला.

 

 

1 उपदेशक. 2 रोशनी, दीपमाला.

 

थी नौआमोजे फ़ना, हिम्मते दुशवार-पसंद,

सख़्त मुश्किल है कि यह काम भी आसां निकला.

 

 

दिल में फिर गिरिया ने इक शोर उठाया ‘ग़ालिब’,

आह जो क़तरा न निकला था, सो तूफां निकला.

 

 

 

था ज़िंदगी में मौत का खटका लगा हुआ,

उड़ने से पहले भी तो मेरा रंग ज़र्द था.

 

 

 

तालीफ़-ए-नुस्खाहा-ए-वफ़ा कर रहा था मैं,

मजमूअ-ए-ख़याल अभी फ़र्दफ़र्द था.

 

 

 

जाती है कोई कशमकश अंदोहे इश़्क की,

दिल भी अगर गया, तो वहीं दिल का दर्द था.

 

 

 

अहबाब चारा साज़ि-ए-वहशत न कर सके,

ज़िंदां में भी ख़याले-बयाबां-नवर्द था.

 

 

 

यह लाशे बे कफ़न, असद-ए-ख़स्ता जां की है,

हक़ मग़फरत करे, अजब आज़ाद मर्द था.

 

 

 

दहर में नक़्शे-वफ़ा वज्हे तसल्ली न हुआ,

है यह वह लफ़्ज़ कि शर्मिंदा-ए-म अनी न हुआ.

 

 

 

मैं ने चाहा था कि अन्दोहे वफ़ा से छूटूं,

वह सितमगर मेरे मरने पे भी राज़ी न हुआ.

 

 

 

किस से महरूमि-ए-क़िस्मत की शिक़ायत कीजे,

हम ने चाहा था कि मर जाएं सो वह भी न हुआ.

 

 

 

मिरी तामीर में मुज़्मिर है इक सूरत ख़राबी की,

हयूला बर्क़े ख़िरमन का है खूने-गर्म दहक़ां का.

 

 

 

ख़मोशी में निहां, खूंगश्ता लाखों आरज़ूएं हैं,

चराग़े मुर्दा हूं मैं, बेज़बां, गोरे-ग़रीबां का.

 

 

 

बग़ल में ग़ैर की, आज आप सोते हैं कहीं, वरना,

सबब क्या ख़्वाब में आ कर तबस्सुमहाए पिन्हां का.

 

 

 

नहीं मालूम, किसकिस का लहू पानी हुआ होगा,

क़यामत है सरश्क आलूदा होना तेरी मिज़गां का.

 

 

 

नज़र में है हमारी जादा-ए-राहे फ़ना ‘ग़ालिब’,

कि यह शीराज़ा है आलम के अज्ज़ा-ए-परीशां का.

 

 

 

महरम नहीं है तू ही नवाहाए-राज़ का,

यां वरना जो हिजाब है, पर्दा है साज़ का.

 

 

 

रंगे शिकस्ता सुबहे बहारे नज़ारा है,

यह वक़्त है शिगुफ़्तने गुलहाए नाज़ का.

 

 

 

तू और सू-ए-ग़ैर नज़रहाए-तेज़ तेज़,

मैं और दुख तिरी मिज़ाहा-ए दराज़ का.

 

 

 

ताराजे काविशे ग़मे हिजरां हुआ, ‘असद’,

सीना कि था दफ़ीना, गुहरहा-ए-राज़ का.

 

 

 

न होगा यक बयाबां मांदगी से ज़ौक कम मेरा,

हुबाबे मौज-ए-रफ़तार है नक़शे क़दम मेरा.

 

 

 

मुहब्बत थी चमन से, लेकिन अब यह बेदमाग़ी है,

कि मौजे बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा.

 

 

 

सरापा रेह्ने इश्क़-ओ-नागुज़ीरे उल्फ़ते हस्ती,

इबादत बर्क़ की करता हूं और अफ़सोस हासिल का.

 

 

 

बक़दरे ज़र्फ़ है साक़ी खुमारे तिश्नाकामी भी,

जो तू दरिया-ए-मै है, तो हूं मैं खमियाज़ा साहिल का.

 

 

 

बज़्मे शाहनशाह में अशआर का दफ़्तर खुला,

रखियो यारब यह दरे-गंजीन-ए-गौहर खुला.

 

 

शब हुई, फिर अंजुमे रख़शिंदा का मंज़र खुला,

इस तकल्लुफ़ से, कि गोया बुतकदे का दर खुला.

 

 

 

गरचे हूं दीवाना, पर क्यों दोस्त का खाऊं फ़रेब,

आस्तीं में दश्ना पिन्हां, हाथ में नश्तर खुला.

 

 

 

गो न समझूं उस की बातें, गो न पाऊं उस का भेद,

पर यह क्या कम है, कि मुझ से वह परी पैकर खुला.

 

 

 

है ख़याले हुस्न में, हुस्ने अमल का सा ख़याल,

खुल्द का इक दर है, मेरी गोर के अंदर खुला.

 

 

 

मुंह न खुलने पर वह आलम है कि देखा ही नहीं,

जुल्फ़ से बढ़ कर नकाब़ उस शोख़ के मुंह पर खिला.

 

 

 

दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया,

जितने अरसे में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला.

 

 

 

क्यों अंधेरी है शबे ग़म, है बलाओं का नुज़ूल,

आज उधर ही को रहेगा दीदा-ए-अख़तर खुला.

 

 

 

क्या रहूं ग़ुरबत में खुश, जब हो हवादिस का यह हाल,

नामा लाता है वतन से नामाबर, अकसर खुला.

 

 

 

वां, खुदआराई को था मोती पिरोने का ख़याल,

यां, हुजूमे अश्क में तारे-नगह नायाब था.

 

 

 

जल्वा-ए-गुल ने किया था वां चरागां आबजू,

यां, रवां मिज़गाने चश्मे तर से खूने नाब था.

 

 

 

यां नफ़स करता था रौशन शम-ए-बज़्मे बेख़ुदी,

जलवा-ए-गुल वां बिसाते-सोहबते अहबाब था.

 

 

 

फ़र्श से ता अर्श, बां तूफ़ां था मौजे रंग का,

यां ज़मीं से आसमां तक सोख़तन का बाब था.

 

 

 

नागहां, इस रंग से खूंनाब टपकाने लगा,

दिल कि ज़ौक़े काविशे नाख़ुन से लज़्ज़तयाब था.

 

 

 

नाला1-ए-दिल में शब, अंदाज़े असर नायाब था,

था सिपंदे बज़्मे बस्ले ग़ैर, गो बेताब था.

 

 

 

कुछ न की, अपने जुनूने नारसा ने, वर्ना यां,

ज़र्रा ज़र्रा रूकशे ख़ुरशीदे आलम ताब था.

 

 

 

आज क्यों परवा नहीं अपने असीरों की तुझे,

कल तलक तेरा भी दिल मेहर-ओ-वफ़ा का बाब था.

 

 

 

याद कर वह दिन, कि हर इक हलक़ा तेरे दाम का,

इंतज़ारे सैद में, इक दीदा-ए-बेख़्वाब था.

 

 

 

मैं ने रोका रात ग़ालिब को, वगर्ना 2 देखते,

उस के सैले गिरिया में. गर्दूं कफे सैलाब था.

 

 

1 आह और फरियाद. 2 पुरानी जबान में वरना को कहते थे. आजकल इस तरह इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता.

 

एक एक कतरे का मुझे देना पड़ा हिसाब,

ख़ू ने जिगर वदीअते 1 मज़गाने यार 2 था.

 

 

 

अब मैं हूं और मातमे यक शहरे आरज़ू,

तोड़ा जो तू ने आईना, तिमसालदार 3 था.

 

 

 

गलियों में मेरी लाश को खींचे फिरो,

कि मैं, जां दाद-ए-हवा-ए-सरे रहगुज़ार था.

 

 

 

मौजे सराबे 4 दश्ते वफ़ा का न पूछ हाल,

हर जर्रा मिस्ले जौहरे तेग़ आबदार था.

 

 

 

कम जानते थे हम भी ग़मे इश्क़ को, पर अब,

देखा तो कम हुए पै, ग़मे रोज़गार था.

 

 

1 अमानत. 2 दोस्त की पलकें. 3 जिस में प्रतिबिंब आए. 4 दूर रेगिस्तान में चमकती हुई रेत जिसे देख कर पानी का धोखा होता है.

 

बस कि दुश्वार है, हर काम का आसां होना,

आदमी को भी मुयस्सर नहीं, इनसां होना.

 

 

 

गिरिया चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की,

दरोदीवार से टपके है, बयाबां होना.

 

 

 

वाय दीवानगि-ए-शौक़, कि हरदम मुझ को,

आप जाना उधर, और आप ही हैरां होना.

 

 

 

जलवा अज़ बस कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है,

जौहरे आईना भी, चाहे है मिज़गां होना.

 

 

 

इश्रते क़त्लगहे अहले तमन्ना मत पूछ,

ईद नज़्ज़ारा है, शमशीर का उरियां होना.

 

 

 

ले गए ख़ाक में हम, दाग़े तमन्ना-ए-निशात,

तू हो, और आप बसद रंगे गुलिस्तां होना.

 

 

 

इश्रते पार-ए-दिल, ज़ख़्मे तमन्ना खाना,

लज़्ज़ते रीशे जिगर, ग़र्क़े नमकदां होना.

 

 

 

की मेरे क़त्ल के बाद, उस ने जफ़ा से तौबा,

हाय, उस ज़ूद पशेमां का पशेमां होना.

 

 

 

हैफ़, उस चार गिरह कपड़े की किस्मत, ‘ग़ालिब’

जिस की क़िस्मत में हो, आश़िक का गरेबां होना.

 

 

 

 

मानि‘अ-ए-वहशत ख़रामीहा-ए-लैला कौन है,

ख़ाना-ए-मजनूंने सहरा गर्द बे दरवाज़ा था.

 

 

 

दोस्त ग़मख़्वारी में मेरी, सइ फ़रमाएंगे क्या,

ज़ख़्म के भरने तलक, नाख़ुन न बढ़ आएंगे क्या?

 

 

 

बेनियाज़ी हद से गुज़री, बंदा परवर कब तलक,

हम कहेंगे हाले दिल और आप फरमाएंगे क्या?

 

 

 

हज़रते नासेह गर आएं दीदा ओ दिल फर्शेराह,

कोई मुझ को यह तो समझा दो कि समझाएंगे क्या?

 

 

 

आज वां तेग़ ओ कफ़न बांधे हुए जाता हूं मैं,

उज्र मेरे क़त्ल करने में बह अब लाएंगे क्या?

 

 

 

गर किया नासेह ने हम को कैद, अच्छा यूं सही,

ये जुनूने इश़्क के अंदाज छूट जाएंगे क्या?

 

 

 

ख़ाना ज़ादे ज़ुल्फ हैं ज़ंजीर से भागेंगे क्यों,

हैं गिरिफ्तारे वफ़ा, ज़िंदां से घबराएंगे क्या?

 

 

 

है अब इस मामूरे 1 में क़हते ग़मे उलफ़त, ‘असद’

हम ने यह माना कि दिल्ली में रहें, खाएंगे क्या?

 

 

 

यह न थी हमारी किस्मत, कि बिसाले यार होता,

अगर और जीते रहते, यही इंतज़ार होता.

 

 

1 शहर.

 

 

तिरे वादे पर जिए हम, तो यह जान छूट जाना.

कि ख़ुशी से मर जाते, अगर एतबार होता.

 

 

 

 

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न ग़र्क़े दरिया,

न कभी ज़नाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता.

 

 

 

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वह यकता,

जो दुई की बू भी होती, तो कहीं दोचार होता.

 

 

 

यह मसाइले तसव्वुफ़ यह तिरा बयान, ‘ग़ालिब’,

तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता.

 

 

 

हवस को है निशाते कार क्या क्या,

न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या.

 

 

 

तजाहुल 1 पेशगी से मुद्दआ क्या,

कहां तक, ऐ सरापा नाज़, क्या, क्या.

 

 

 

नवाज़िश हा-ए-बेजा, देखता हूं,

शिकायतहा-ए-रंगी का गिला क्या.

 

 

 

निगाहे बेमहाबा चाहता हूं,

तग़ाफ़ुल हाय तमकी आज़मा क्या.

 

 

 

फ़रोग़े शोला-ए-ख़स यक नफ़स है,

हवस को पासे नामूसे वफ़ा क्या.

 

 

 

नफ़स मौजे मुहीते बेख़ुदी है,

तग़ाफ़ुलहाए-साक़ी का गिला क्या.

 

 

1 ग़फ़लत को पेशा बना लेना.

 

 

दिमाग़े इत्र पैराहन नहीं है,

ग़मे आवारगीहा-ए-सबा क्या.

 

 

 

दिले हर कतरा है साज़े अनल बह,

हम उस के हैं, हमारा पूछना क्या.

 

 

 

महाबा क्या है, मैं ज़ामिन, इधर देख,

शहीदाने निगह का खूं बहा क्या.

 

 

 

सुन, ऐ ग़ारतगरे जिनसे वफ़ा सुन,

शिकस्ते शीशा-ए-दिल की सदा क्या.

 

 

 

किया किस ने जिगरदारी का दावा,

शकेबे ख़ातिरे आशिक़, भला किया.

 

 

 

यह क़ातिल वादा-ए-सब्र आज़मा क्यों,

यह काफ़िर फ़ितना-ए-ताकत रुबा क्या.

 

 

 

बलाए जां है, ‘ग़ालिब’, उस की हर बात,

इबारत क्या, इशारत क्या, अदा क्या.

 

 

 

दर ख़ुरे क़हरो ग़ज़ब, जब कोई हम सा न हुआ,

फिर ग़लत क्या है, कि हम सा कोई पैदा न हुआ.

 

 

 

बंदगी में भी, वह आज़ाद-ओ-ख़ुदबीं हैं, कि हम,

उलटे फिर आए, दरेकाबा अगर वा न हुआ.

 

 

 

सब को मक़बूल है दावा तेरी यकताई का,

रूबरू कोई बुते आइना 1 सीमा न हुआ.

 

 

 

कम नहीं, नाज़िशे हमनामि-ए-चश्मे ख़ूबां,

तेरा बीमार, बुरा क्या है, गर अच्छा न हुआ.

 

 

 

सीने का द़ाग है वह नाला कि लब तक न गया,

ख़ाक का रिज़्क है, वह क़तरा कि दरिया न हुआ.

 

 

 

काम का मेरे है, वह दुख कि किसी को न मिला,

काम में मेरे है, वह फ़ितना कि बरपा न हुआ.

 

 

 

क़तरे में दजला दिखाई न दे, और जुज़्व में कुल,

खेल लड़कों का हुआ, दीदा-ए-बीना न हुआ.

 

 

1 आइना जैसी सूरत वाला, अत्यंत सुंदर.

 

 

थी ख़बर गर्म, कि ‘ग़ालिब’ के उड़ेंगे पुर्ज़े,

देखने हम भी गए थे, पर तमाशा न हुआ.

 

 

 

न दे नामे 1 को इतना तूल, ‘ग़ालिब’ मुख्तसर कर दे,

कि हसरत संज 2 हूं, अर्ज़े सितमहाए जुदाई का.

 

 

 

गर 3 न अंदोहे 4 शबे फ़ुर्कत बयां हो जाएगा,

बेतकल्लुफ़ दाग़े मह, मोहरे दहां 5 हो जाएगा.

 

 

 

ज़हरा ग़र ऐसा ही, शामे हिज्र में होता है आब,

परतवे महताब, सैले खानमां हो जाएगा.

 

 

 

ले तो लूं, सोते में उस के पांव का बोसा, मगर,

ऐसी बातों से, वह काफ़िर बदगुमां हो जाएगा.

 

 

 

दिल को हम सर्फ़े वफ़ा समझे थे, क्या मालूम था,

यानी, यह पहले ही नज्र-ए-इम्तहां हो जाएगा.

 

1 ख़त. 2 हसरत रखने वाला. 3 अगर. 4 गम. 5 मुंह पर मोहर लग जाना.

 

 

 

सब के दिल में है जगह तेरी, जो तू राजी हुआ,

मुझ पे गोया इक ज़माना, मेहरबां हो जाएगा.

 

 

 

गर निगाहे गर्म फ़रमाती रही, तालीम-ए-ज़ब्त,

शोला ख़स में, जैसे खूं रंग में, निहां हो जाएगा.

 

 

 

बाग़ में मुझ को न ले जा, वरना मेरे हाल पर,

हर गुले तर एक चशमे खूंफ़िशां हो जाएगा.