चिपको आंदोलन की शुरुआत 24 अप्रैल, 1973 को उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के चमोली जिले के मंडल में हुई थी।
चिपको भारत में विश्व प्रसिद्ध पर्यावरण आंदोलनों में से एक है।
पहाड़ियों में पारिस्थितिक अस्थिरता से आंदोलन को उठाया गया था।
वन उत्पादन में गिरावट ने पहाड़ी निवासियों को बाजार पर निर्भर होने के लिए मजबूर कर दिया, जो निवासियों के लिए एक केंद्रीय चिंता का विषय बन गया।
बाढ़, भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के पीछे वन संसाधनों के दोहन को कारण माना जाता था।
27 मार्च को 'चिपको' यानी उन पेड़ों को 'गले लगाने' का फैसला लिया गया जिन्हें कुल्हाड़ी से खतरा था और इस तरह चिपको आंदोलन (आंदोलन) का जन्म हुआ।
विरोध का यह रूप निजी कंपनियों को राख के पेड़ काटने से दूर करने में सहायक था।
सुंदरलाल बहुगुणा भारत के सबसे प्रसिद्ध और शुरुआती पर्यावरणविदों में से एक हैं।
वह प्रसिद्ध चिपको आंदोलन के नेता थे।
उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा हिमालय में वनों के संरक्षण के लिए लड़ते हुए बिताया है।
गढ़वाल के रेनी गांव में पेड़ों को गले लगाकर उनकी रक्षा करने और इन पेड़ों को काटने की अनुमति नहीं देने के लिए जो आंदोलन शुरू किया गया था, उसे चिपको आंदोलन कहा जाता है।
चिपको आंदोलन तेजी से समुदायों और मीडिया में फैल गया, और सरकार को, जिसके पास जंगल हैं, वन उपज के नाम पर अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया।
स्थानीय लोगों की भागीदारी से वनों का कुशल प्रबंधन हुआ।
चिपको आंदोलन (Chipko Movement) एक पर्यावरणीय आंदोलन था जो भारत में 1970 के दशक में उत्पन्न हुआ। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था पर्यावरण संरक्षण और पेड़ों की सुरक्षा को लेकर जनता के जागरूक होने को बढ़ावा देना। यह आंदोलन पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में विकसित हुआ और इसकी मुख्यता से उपस्थिति उत्तराखंड राज्य में देखी जा सकती है। यह आंदोलन मुख्य रूप से पहाड़ी गांवों में रहने वाली लोगों द्वारा चलाया जाता था, जो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को लेकर संघर्ष कर रहे थे।
चिपको शब्द का अर्थ होता है "चिपकना" या "लगाना"। यह शब्द आंदोलन के मुख्य रूपक तत्वों में से एक को दर्शाने के लिए चुना गया है। इस आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं ने वन कटाई के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए अपने आपको पेड़ों के साथ जोड़ दिया और उन्हें चिपकाने का प्रयास किया। यह आंदोलन मूल रूप से महिलाओं द्वारा चलाया गया था, जिन्होंने इसे अपने गांवों में पेड़ों की सुरक्षा के लिए शुरू किया था। आंदोलन का यह विशेषता महिलाओं के सशक्तिकरण की एक उदाहरण है और इसे "महिला चिपको आंदोलन" के रूप में भी जाना जाता है।
चिपको आंदोलन का प्रारंभिक चरण पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में जगह बना रही वन उद्योगों के बढ़ते प्रभाव के कारण हुआ। इस क्षेत्र में वन कटाई और वनों के खातिर भूमि की जबरन अधिग्रहण की प्रवृत्ति थी, जो पर्यावरणीय संतुलन को खतरे में डाल रही थी। वन कटाई के नतीजे में धरती की संरचना ख़राब हो रही थी, जो बाढ़, भूकंप और जलवायु परिवर्तन की बढ़ती हुई जोखिम को बढ़ा रही थी। यह बात विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को प्रभावित कर रही थी, जो अपनी आय का मुख्य स्रोत वनों से प्राप्त करते थे।
चिपको आंदोलन का प्रारंभिक संदेश वनों की सुरक्षा और उनके संरक्षण की महत्वता को जनता के सामाजिक और आर्थिक जीवन में प्रभावी ढंग से प्रदर्शित करने का था। यह आंदोलन गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों द्वारा भी समर्थित किया गया, जिन्हें इस वनों के महत्व का अधिक संवेदनशील दृष्टिकोण था। इससे आंदोलन की प्रभावी और सामाजिक रूप से समर्थित कार्यक्रम विकसित हुए, जिनमें संगठन, प्रशिक्षण, जनसभा, न्यायाधीशों के सामरिक विरोध आदि शामिल थे।
चिपको आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी उसके अद्यतनीय और समर्पित स्वरूप में, जो न केवल पर्यावरण संरक्षण के मुद्दों को उठा रहा था, बल्कि उसके पीछे समाजीकरण और सामाजिक न्याय के मुद्दे भी थे। इस आंदोलन का जो मूल उद्देश्य था, वह पेड़ों की सुरक्षा को लेकर लोगों को जागरूक करने और साथ ही साथ समाजीकरण और न्याय के मुद्दों को भी सामने लाना था। इसके बाद ही इस आंदोलन का रजत निश्चय मिल सका था।
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